Thursday, July 9, 2009

दृढ कितना दिखता था जब आकाश पर था
धरती पे आया तो पतंग सा कमज़ोर निकला
डूब ही जाता अगर, तो न मैं हैरान होता
क्यों आखिर नदी के इसी छोर निकला

जहाँ छोड़ के गया था बस्तियां कभी
लौटा तो बियाबान कोई घनघोर निकला
दीवारें सारी ढह गयीं, दरवाजे मगर खड़े रहे
कुछ तो मेरे घर में तूफाँ से भी पुरजोर निकला

आवाजें जब सब सो गयीं
तो भीतर का कोई शोर निकला
रात खाली गगन को तकता रहा
शाम का धुंधलका बनके फिर भोर निकला

1 comment:

Prachi Agrawal said...

kshama kjiye...kintu kehna chahenge ki ya to ye kavita apne shabdon mein vyaapt bhavnaon ko prakat karne mein asamarth hai....
....athwa hum iske bhaav ko grahan karne mein saksham nahi hain!!