
सदियों से पिसते
गुलामी कि जंजीरों से घिसते
मन के घावों से रिसते
रहे कुछ सपने स्वतंत्र
असंख्य बलिदानों का
नई सुबह के अरमानो का
खंडित, आहत आत्म-सम्मानों का
अंततः स्थापित हुआ यह जनतंत्र
क्यों पर आज ये सपना फीका सा है,
वो आजादी का एह्साह क्या हुआ
वो आशाओं का उल्लास क्या हुआ?
क्यों ढह रहा है आँखों के आगे
भय स्वार्थ और भ्रष्टाचार
से खोखला होता लोकतंत्र
इन ढहती दीवारों से उठता
धूल का एक गुबार सा है
जो ढक रहा आज़ादी का सूरज
मन में फिर एक अन्धकार सा है
करें कुछ ऐसा जतन
जहाँ मन हो स्वतंत्र
भारत बने एक ऐसा मनतंत्र