दृढ कितना दिखता था जब आकाश पर था
धरती पे आया तो पतंग सा कमज़ोर निकला
डूब ही जाता अगर, तो न मैं हैरान होता
क्यों आखिर नदी के इसी छोर निकला
जहाँ छोड़ के गया था बस्तियां कभी
लौटा तो बियाबान कोई घनघोर निकला
दीवारें सारी ढह गयीं, दरवाजे मगर खड़े रहे
कुछ तो मेरे घर में तूफाँ से भी पुरजोर निकला
आवाजें जब सब सो गयीं
तो भीतर का कोई शोर निकला
रात खाली गगन को तकता रहा
शाम का धुंधलका बनके फिर भोर निकला
Thursday, July 9, 2009
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