Friday, November 29, 2024


Easterly

On a day of heat, the sun ablaze,

I met her amidst the shimmering haze.
A soothing breeze, cool and free,
She whispered softly, 'Easterly'.

Her touch was calm, her presence light,
A balm to the weary, a pure delight.
In gusts she played, across my face,

A fleeting joy, a sweet embrace.

She nudged the clouds to the western skies,
Spilling colors where the horizon lies—
A palette wild: red, orange, pink,
Purple dreams at the day’s last brink.

Her fragrance danced, so soft, so rare,
A playful tease that lingered there.
Each evening found me seeking her,
In a quiet corner, my thoughts a blur.

I loved the way she’d come and go,
A restless spirit, a constant flow.
To bind her down, I’d never dare,
For freedom was her essence rare.

She’d never stay, yet I’d not grieve,
For beauty lies in what must leave.
The Easterly, with her fleeting art,
Had carved her name upon my heart.

Thursday, December 2, 2021

 कई बार सोचता हूँ कि  

जो सपने पूरे नहीं हो पाते 
वो कहाँ जाते हैं 

कभी न बरसने वाले,
रुई जैसे सफ़ेद बादलों के साथ 
हवा में पिघल जाते हैं 
या नन्हीं कश्तियों के कागज़ संग 
पानी में घुल जाते हैं 

नदी से अलग हुई धार में उतरकर  
किसी पोखर में ठहर जाते हैं 

या किसी आधी लिखी कविता के जैसे 
कहीं पीले पन्नो में बिसर जाते हैं 

जो सपने पूरे नहीं हो पाते 
वो कहाँ जाते हैं...

Saturday, May 31, 2014

पुराने रास्तों को देखकर आज फिर
अपना वक़्त-ए-सफ़र याद आया है

कुछ इरादों के टुकड़े, वादों के तगादे
किसी हार का मन में अवसाद आया है

ऊपर की बर्थ पे सोया हुआ था कि
नीचे किसी ने कहा इलाहाबाद आया है

Sunday, August 14, 2011

स्वतंत्रता दिवस


सदियों से पिसते
गुलामी कि जंजीरों से घिसते
मन के घावों से रिसते
रहे कुछ सपने स्वतंत्र

असंख्य बलिदानों का
नई सुबह के अरमानो का
खंडित, आहत आत्म-सम्मानों का
अंततः स्थापित हुआ यह जनतंत्र

क्यों पर आज ये सपना फीका सा है,
वो आजादी का एह्साह क्या हुआ
वो आशाओं का उल्लास क्या हुआ?

क्यों ढह रहा है आँखों के आगे
भय स्वार्थ और भ्रष्टाचार
से खोखला होता लोकतंत्र

इन ढहती दीवारों से उठता
धूल का एक गुबार सा है
जो ढक रहा आज़ादी का सूरज
मन में फिर एक अन्धकार सा है

करें कुछ ऐसा जतन
जहाँ मन हो स्वतंत्र
भारत बने एक ऐसा मनतंत्र

Monday, June 13, 2011

महाभारत एक खोज

तोड़ traffic के चक्रव्यूह को
प्राणों को धर वेदी पर
नित करता है सड़क पार
अभिमन्यु, धीर वीर और दक्ष

घूम कर देखो कभी
सरकारी दफ्तर के गलियारों में
एक समूचा इन्द्रप्रस्थ सा
प्रस्तुत करता प्रत्येक कक्ष

पड़ा नहीं पाला कभी दानवीर का
इन स्टेशन के भिकमंगो से
वरना कुंडल कवच के साथ साथ
खो देता अपने कर्ण वक्ष

खिंचते ही रहते हैं चीर यहाँ
रोज असंख्य द्रौपदियों के
बसों, ट्रेनों फुटपाथों पे
विवश पितामह के समक्ष

रण में दोनों ओर खड़ी
दुर्योधन कि सेना है
क्या करोगे कृष्ण आज
लोगे तुम किसका पक्ष

लोकतंत्र है यहाँ, यहाँ के सौ करोड़ सम्राट हैं
एक-दो नहीं यहाँ पर, सौ करोड़ ध्रितराष्ट्र हैं
गली-गली में है कुरुक्षेत्र,
लाक्षागृह हर एक इमारत है
जीवन में मची हुई रोज यहाँ
एक नई महाभारत है
कोई कौरव-पांडव का खेल नहीं
यह आधुनिक भारत है |

Tuesday, April 26, 2011

Because you are so beautiful!

Like sweet vagueness
of half forgotten early morning dream
Like sparkling charm
of a careless youthful stream

Like in a crowded strange land
comfort of holding a familiar hand
Like the liberating smell of early summer rain
or on a sad noon, soothing sound of a distant strain

Like a heart can feel all that
and much more, at a slight
sure love can happen
and has happened at first sight

Sunday, March 20, 2011

Holi


Slowly climbs the crimson sun
from behind the sullen crimson domes
This way and that he peers and sees
crimson people in crimson homes

Beaming through the crimson mist engulfing town
Glistening briskly in crimson brooks gurgling down

Slanting its rays upon a crimson tower,
from where leaps a crimson cascade
to greet the street with a crimson shower
then drips from her hairs on to cheeks
like drops of dew on a crimson flower

Warmth of spring and smell of husk
There's a crimson shade in my crimson bower